क्या सच में भारतीय सेना पर “10% का नियंत्रण” है? क्या देश की सबसे अनुशासित और राष्ट्रभक्त संस्था को भी जाति और वर्ग की बहस में खींचा जा सकता है? यही सवाल अब राजनीति के केंद्र में है। राहुल गांधी की हालिया टिप्पणी ने देश में नया तूफान खड़ा कर दिया है। बिहार के कुटुंबा में चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने कहा कि भारतीय सेना सहित देश की बड़ी-बड़ी संस्थाओं पर सिर्फ आबादी के एक छोटे से हिस्से का प्रभाव और नियंत्रण है। उनके इस बयान के बाद मामला वहीं नहीं रुका — बल्कि देश की राजनीति में बवाल मच गया।
और यह बवाल तब और हंगामेदार हो गया जब विपक्ष के ही वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने इस बयान पर खुलकर नाराजगी जताई। सिन्हा ने एक्स पर लिखा कि भारतीय सेना को जातीय बहस में खींचना बेहद निराशाजनक है, क्योंकि सेना की एक ही पहचान है — देशभक्ति, साहस और बलिदान। सवाल यही है कि क्या राजनीति के संघर्ष में सेना को एक हथियार बनाया जा रहा है? या फिर यह सचमुच उस सामाजिक असमानता की ओर इशारा है, जिसका जिक्र राहुल गांधी लगातार करते रहे हैं?
राहुल गांधी ने सिर्फ सेना ही नहीं, बल्कि अदालतों, नौकरशाही और कॉर्पोरेट सेक्टर को भी कथित “10% के प्रभुत्व” का हिस्सा बताया। उन्होंने दावा किया कि अडानी और अंबानी जैसी 500 बड़ी कंपनियों का स्वामित्व भी उन्हीं विशेष वर्गों में सीमित है। यहाँ सवाल सिर्फ आरोपों का नहीं है — बल्कि उस भरोसे का है, जो जनता सेना जैसी संस्थाओं पर करती है। क्या राजनीति का यह बयान उस भरोसे को झकझोरता है? या यह देश की सामाजिक हकीकत का वह चेहरा है, जिसे अब तक छिपाया गया?



