दोस्तों 29 जुलाई से ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी 2’ टीवी शो में तुलसी वीरानी की वापसी हो रही है लेकिन क्या यह स्मृति इरानी की राजनीति से विदाई का संकेत है? एक समय था, जब स्मृति इरानी ने अमेठी में राहुल गांधी को हराकर सुर्खियां बटोरीं। लेकिन आज, टीवी के पर्दे पर फिर से सास-बहू का ड्रामा लेकर लौट रही हैं। ऐसे में क्या यह उनकी राजनीतिक असफलताओं का जवाब है, या फिर एक नया ड्रामा? चलिए, इसकी तह तक जाते हैं!
दोस्तों वो साल 2000 का था जब ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ धारावाहिक ने भारतीय टेलीविजन को नया आयाम दिया था। तुलसी वीरानी का किरदार न केवल परिवारों को जोड़ता था, बल्कि स्मृति इरानी को एक सुपरस्टार बना गया। लेकिन 2003 में राजनीति में कदम रखने के बाद, उन्होंने टेलीविजन को अलविदा कह दिया। 2014 में अमेठी से राहुल गांधी को हराकर उन्होंने अपनी राजनीतिक ताकत दिखाई। मानव संसाधन विकास, कपड़ा, और महिला व बाल विकास जैसे मंत्रालयों में उनकी भूमिका ने उन्हें एक मजबूत नेता के रूप में स्थापित किया। लेकिन 2024 में अमेठी से केएल शर्मा के हाथों हार ने उनके राजनीतिक करियर पर सवालिया निशान लगा दिया।
अब, ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी 2’ में उनकी वापसी कई सवाल खड़े करती है। स्मृति खुद कहती हैं कि वह “पूर्णकालिक राजनेता और अंशकालिक अभिनेत्री” हैं। लेकिन क्या यह दावा विश्वसनीय है? लोगो का मानना है कि यह उनकी राजनीतिक असफलताओं से ध्यान हटाने की रणनीति हो सकती है। 2014 में वह एक फिल्म और इस शो के रिबूट से पीछे हटी थीं, क्योंकि उन्हें कैबिनेट मंत्री की जिम्मेदारी मिली थी। लेकिन आज, जब वह मंत्रिमंडल का हिस्सा नहीं हैं और अमेठी में हार का सामना कर चुकी हैं, तो सवाल उठता है क्या यह टीवी की वापसी उनकी प्रासंगिकता बनाए रखने की कोशिश है? ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ का पहला सीजन सामाजिक मुद्दों जैसे वैवाहिक बलात्कार और वयस्क साक्षरता को उठाने के लिए जाना जाता था।
लेकिन आज के डिजिटल युग में, जब ओटीटी प्लेटफॉर्म्स और आधुनिक कहानियां दर्शकों को आकर्षित कर रही हैं, क्या यह शो उतना ही प्रभावशाली होगा? स्मृति की वापसी को कुछ लोग नॉस्टैल्जिया का फायदा उठाने की कोशिश मानते हैं, लेकिन क्या यह उनके राजनीतिक करियर को नुकसान पहुंचाएगा? आप जानते हो उनकी पार्टी, बीजेपी, में उनकी स्थिति पहले ही कमजोर हो चुकी है, और यह कदम उनके समर्थकों को यह संदेश दे सकता है कि वह राजनीति से ज्यादा मनोरंजन में रुचि रखती हैं। स्मृति ने दावा किया है कि वह अपनी संगठनात्मक जिम्मेदारियों से कभी समझौता नहीं करेंगी। लेकिन बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण चुनावों के नजदीक, क्या वह दोनों क्षेत्रों में समान ऊर्जा दे पाएंगी?
उनके आलोचक कहते हैं कि यह “साइड प्रोजेक्ट” उनकी प्राथमिकताओं पर सवाल उठाता है। एक तरफ वह कहती हैं कि वह टेलीविजन और राजनीति को संतुलित कर सकती हैं, लेकिन क्या यह संतुलन उनकी विश्वसनीयता को कमजोर करेगा? खासकर तब, जब देश को पूर्णकालिक नेताओं की जरूरत है। तुलनात्मक रूप से देखें, तो स्मृति का यह कदम उनके समकालीन नेताओं से अलग है। जहां अन्य राजनेता अपनी छवि को नीतिगत निर्णयों या सामाजिक कार्यों से मजबूत करते हैं, स्मृति का टीवी की दुनिया में लौटना एक जोखिम भरा दांव है। यह उनके प्रशंसकों को खुश कर सकता है, लेकिन उनके राजनीतिक विरोधी इसे कमजोरी के रूप में पेश कर सकते हैं। सोशल मीडिया पर पहले से ही कुछ लोग इसे उनकी हार के बाद “मूल काम” पर वापसी कह रहे हैं।
तो दोस्तों, स्मृति इरानी की यह वापसी क्या वाकई नॉस्टैल्जिया की जीत है, या फिर राजनीतिक हार का परिणाम? क्या वह तुलसी वीरानी के किरदार में फिर से जादू बिखेर पाएंगी, या यह उनके राजनीतिक करियर का अंतिम अध्याय होगा? आप अपनी राय कमेंट में जरूर बताएं!